चलो आज आखिरी यह इंतजाम कर लें-
पहचान अपनी-अपनी दूजे के नाम कर लें।
यह इश्क सो न जाए, थपकी न देना अब तुम,
मैं बात यूँ जगाऊँ , करवट के होश हों गुम ,
अबकी जो शब सजे तो लब भर के चली आना-
बादल के माथे का वो आफताबी सारा कुमकुम।
सुनो!तेरे लबों के सूरज अपने तमाम कर लें-
पहचान अपनी-अपनी दूजे के नाम कर लें।
शब खत्म न हो अपने मिलन की यह निगोड़ी,
दो रात को जो जोड़े , उस दिन की कर लूँ चोरी,
चाहत की कैंची लेकर दिन टुकड़े-टुकड़े कर दूँ-
हर शब में डाल दूँ मैं , हर कतरन थोड़ी-थोड़ी।
आज बाहों में एक-दूसरे का ऎहतराम कर लें-
पहचान अपनी-अपनी दूजे के नाम कर लें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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LOVE IS GOD - प्रेम ईश्वर है।
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Friday, September 7, 2007
शब भर
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Friday, August 17, 2007
एक गज़ल
हमें क्या पड़ी थी , नींद की जो आरजू करते,
हमारे ख्वाब ,खुली नज़रों से थें गुफ्तगू करते ।
मसीहा इश्क का बेमौत शायद मर चुका होता,
जो गज़लों से मोहब्बत करना ना शुरू करते।
कोई कह दे उन्हें, वो शब भर बेसब्र ना रहें,
जग लेते हैं चकवा-चकई भी जुस्तजू करते।
निगाहे-नूर जिरह कर ले भी तो जान आ जाए,
जाने क्या मिले उनको , हमें बेआबरू करते ।
गर तबियत से मिले दिल तो रश्क भी करूँ,
आह! ना बने बीमार दिल को य़ूँ उदू करते।
'तन्हा' , नामुरादे-इश्क ऎसी बला है जान ले,
बस पल लगे नब्जों के पानी को लहू करते ।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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Posted by विश्व दीपक at 9:04 AM 6 comments
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Friday, June 29, 2007
तुम
इश्क का घट आज,मैं नजरों से उड़ेलता हूँ।
तेरे लब पर मैं,सुनो, नूर-ए आब बेलता हूँ।
तुमने बेझिझक हाल-ए-दिल कह दिया लेकिन,
मेरे दिल का हाल सुनने में यह हया कैसी,
जा रही हो रूठ कर, मगर जाओगी कहाँ,
हैं मेरी अर्दली हवाएँ और रास्ते मेरे हितैषी।
लट उड़ाके शब सजाओ होश के वास्ते अब,
बेहोश इस रात में पलकॊं पे तेरे खेलता हूँ।
मैंने कब आँसू बिखेरे तेरे सुर्ख गालों पर और
ख्वाब कब रूख्सत किए तेरी सोख नींदॊं से,
डूबकर खुद में हीं देखो, सच बयां हो जाएगा,
छोड़कर सारी खुदाई, है तुझे चुना चुनिंदों से।
रात छोटी-सी लगे तो आँख पल को मूँद लो,
खोलना जब मैं कहूँ, तब तक दिन ढकेलता हूँ।
मेरी मूक आरजू को बोल तूने हीं दिये हैं,
और मेरी जुस्तजू को मूर्त्त तूने है किया,
मेरी जिंदगी के मंजिलों की तुम हीं हो रहनुमा,
सजदे कर रहा है दिल, कह रहा है शुक्रिया।
नींद को तकिये तले जिस्म के संग डाल दो,
रूह सिमटे रूह में, सो रूह अपनी ठेलता हूँ।
इश्क का घट आज,मैं नज़रों से उड़ेलता हूँ।
तेरे लब पर मैं, सुनो, नूर-ए-आब बेलता हूँ।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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Posted by विश्व दीपक at 2:02 AM 10 comments
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Tuesday, June 19, 2007
मेरी मेंहदी , तेरे ख्वाब
मैंने कहा था ना कि
मैं तुम्हारे ख्वाबों में आऊँगी,
इसी कारण
सजने को-
कल बाग में गई थी मैं,
मेंहदी लाने।
निगोड़े काँटे,
शायद दिल नहीं है उनमें,
चुभ कर मुझमें,
मुझे रोक रहे थे।
लेकिन तुमसे वादा किया था ना मैंने,
इसलिए बिना मेंहदी लिए
मैं लौटती कैसे।
फिर कल शाम में मैं
बड़ी बारीकी से
मेंहदी को सिलवट पर पीसी।
हाँ, कुछ दर्द है हाथ में,
लेकिन क्या- कुछ नहीं ।
एक बात कहूँ तुमसे,
शायद सिंदूरी आसमां को
हमारे इकरार का पता था,
इसलिए कल रश्क से,
वह सूरज को लेकर पहले हीं चल दिया।
फिर तुम्हारे लिए,
बड़े प्यार से मैंने
अपने हाथों पर मेंहदी रची ।
कल वक्त पर आई थी ना मैं,
तुम्हारे ख्वाबों में,
आखिर तुमसे वादा जो किया था मैंने।
एक और बात कहूँ,
कल से बहुत भूखी हूँ मैं,
हाथों में मेंहदी थी ना,
सो,
कुछ खा नहीं पाई।
अभी सोने जा रही हूँ,
अब तुम मेरे ख्वाबों में आकर -
मुझे कुछ खिला दो ना।
-विश्व दीपक
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Thursday, June 14, 2007
तुमसे दूर
दूर-
कब था मैं तुमसे,
क्या ख्वाब देखने बंद कर दिये थे तुमने,
नहीं ना,
तो तुम्हारे ख्वाब जिस गली से गुजरते थे,
वहीं मोड़ पर तो था मैं,
पूछो अपने ख्वाबों से-
कई बार मुड़कर उन सब ने देखा था मुझे।
क्या संवरती न थी तुम,
मुझे याद कर
जब भी अपने केशुओं में
ऊंगली फिराती थी तुम,
हवा-सा स्पर्श तुम्हें मालूम पड़ता था ना,
वह कोई और नही,
मेरी साँसें थीं।
जब भी जमीं पर कदम रखती थी तुम,
चाहे गर्मी भी हो-
तुम्हें मिट्टी की शीतलता मिलती थी,
कितना लाड़ आता था तुम्हें मिट्टी पर,
सच कहूँ,
तुम्हारे तलवे के तले -
अपनी हथेली डाल देता था मैं।
तुम्हें देखकर
जब चिड़िये चहचहाते थॆ,
तुम्हें खुशी मिलती थी,
तुम खुश रहो यही तो चाहता हूँ मैं,
इसलिए अपने हिस्से की बगिया भी
तुम्हारे घर के पास छोड़ आता था मैं।
कुछ मजबूरी थी ,
इसलिए तुम्हारी नजरॊ के सामने न था मैं,
लेकिन तुम हीं कहो,
क्या दूर था मैं तुमसे।
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Posted by विश्व दीपक at 10:32 PM 3 comments
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